सहमरण …..सती प्रथा

यह बहुत समय पहले की बात है जब हमारे समाज में सती प्रथा का चलन था, आज हम इस को एक सरल भाषा में समझेंगे और जानेंगे की यह प्रथा कितना क्रूरता भरा था,वैसे तो हमारे पूर्वज अपने समय में बहुत ही बुद्धि जीवी और नेक थे पर ना जाने ऐसी कू प्रथा की शुरुवात कैसे हो गए। भरहाल इस प्रथा के अंत होने में ही हमारे समाज का भला था,नही तो न जाने कितनो के साथ ऐसी क्रूरता होती और बहुतों को पति के चिता के साथ जलाना पड़ता ।

सहमरण …..सती प्रथा

ऐसी प्रथा की वजह से लड़कियां शादी करने से डरती की अगर अचानक से उसके पति की असमय मृत्यु हो गई तो उसे भी उसकी चिता के साथ जिंदा जलाना पड़ता। आइए समझते हैं ऐसी भयावह प्रथा को आसान भाषा में –

पति की मृत्यु के बाद ही उसकी विधवा को एक कटोरा भांग और धतूरा पीला कर नशे में मदहोश कर दिया जाता था ।जब वह शमशान की ओर जाती थी ,कभी हसती थी तो कभी रोती थी और तो कभी रास्ते पर ही लेट कर सोना चाहती थी और यही उसका सहमरण (सती) के लिए जाना था।इसके बाद उसे चिता पे बैठा कर कच्चे बांस की मचिया बना कर दबा कर रखा जाता था क्यों की डर रहता था की सायद दाह होने वाली नारी दाह की यातना न सह सके ।चिता पर बहुत अधिक राल और घी डाल कर इतना अधिक धुआं कर दिया जाता था कि उस यातना को देख कर कोई डर न जाए और दुनिया भर के ढोल , करताल और शंख बजाएं जाते थे की कोई उसका चिल्लाना,रोना – धोना , अनुनय -विनय न सुनने पाए । बस यही तो था सहमरण …..सती प्रथा ।

इस प्रकार सती प्रथा से छुटकारा दिलाने वाले लोर्ड विलियम बेंटिक और राजा राममोहन राय को सलाम, जिन्हो ने उस दौर में इन बहन -बेटियों के लिए ये लड़ाई लड़ी और इस तरह के भयावह प्रथा से निजात दिलाया।

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